छत्तीसगढ़ का खजुराहोः भोरमदेव ( कबीरधाम)
-प्रमोद शर्मा
भारतीय संस्कृति में धर्म और मान्यताओं का
अपार और अदभुत संगम देखने मिलता है..... शिव सनातन संस्कृति में सनातन और शाश्वत
माने जाते हैं ...... भारत और दुनिया भर में संभवतः सर्वाधिक मंदिर शिवजी के ही
होंगे ..... छोटे-बडे हर प्रकार के मंदिर
देश के कोने-कोने में देखे जा सकते हैं ......... भारत में कितनों ऐसे मंदिर होंगे जो देश की विरासत को सहेजकर रखने का काम कर रहे हैं ...... उन्ही में एक है
भोरमदेव........... भोरमदेव को छत्तीसगढ़ को खजुराहो कहा जाता है
..............प्रदेश के कबीरधाम जिले में स्थित स्थित इस मंदिर की प्रसिद्धि पूरे
विश्व में है और लोग दूर-दूर से इसे देखने आते हैं ......
भौगोलिक स्थितिः
भोरमदेव का मंदिर कबीरधाम जिले के चौरागाँव
में जो कवर्धा शहर
से लगभग 18 कि.मी.
दूर, जंगलों से आच्छादित मैकल पर्वतों की तलहटी में स्थित है
।आज तो यह क्षेत्र विकसित और सड़क मार्ग से आसानी से पहुंचने वाली जगह है मगर यह कल्पना से परे है कि
आज से 1100 साल पहले किस तरह इस घने जंगल में इस मंदिर को बनाया गया होगा .......
सोचकर यकीन ही नहीं होता कि किस तरह से सामग्रियां यहां तक पहुंचाई गई होंगी और
कारीगरों ने पूरा मंदिर को साकार रुप दिया होगा ।
इतिहासः
पुरातत्व
विभाग के अन्वेषण बताते हैं कि ये स्थान दूसरी शताब्दी जितनी पुरानी है, जब यहां के शासकों ने यहां की नींव डाली रही
होगी.... समय के साथ 10 से 14 शताब्दी के
आसपास दक्षिण कौशल साम्राज्य के नागवंशी राजाओं ने इस मंदिर का विस्तार करवाया यह वंश नागवंशी इसलिए कहलाता था कि क्योंकि ये
नाग की पूजा करते थे और तंत्र विद्या का अभ्यास किया करते थे.......... कहा जाता
है कि यह मंदिर तंत्र-साधना का केन्द्र रहा होगा ........... माना जाता है कि ये
मंदिर सन 1100 में खजुराहो के मंदिरों से काफी पहले बन चुका
था । एक रिसर्च के अनुसार इसका
निर्माण 1089
ई. में फनीनागवंशी शासक गोपाल देव ने करवाया गया था।
ऐतिहासिक और
पुरातात्विक विभाग द्वारा की गयी खोज और यहाँ मिले शिलालेखो के अनुसार भोरमदेव
मंदिर का इतिहास 10 वीं से 12 वीं शताब्दी के बीच कलचुरी काल का माना जाता है। भोरमदेव मंदिर के
निर्माण का श्रेय फणीनागवंश
वंश के लक्ष्मण देव राय और गोपाल देव को दिया गया है।
भोरमदेव का नाम भोरमदेव क्योः
शिवजी
को अनेकों नाम से पुकारा जाता है मगर भोरमदेव के नाम से कहीं और शिवजी की कोई
प्रतिमा या मंदिर का उल्लेख नहीं मिलता ........इसलिए यह प्रश्न स्वाभाविक है कि
भोरमदेव क्यों ? जवाब
मिलता है कि छत्तीसगढ़ का क्षेत्र शुरु से ही गोंड आदिवासियों का इलाका रहा है.......
इस क्षेत्र के गोंड आदिवासी भगवान शिव की पूजा करते थे,
जिन्हें वे भोरमदेव कहते थे इसीलिए इस मंदिर को भोरमदेव
मंदिर के नाम से जाना जाने लगा।
खजुराहो और कोणार्क से
तुलना क्योः
भोरमदेव मंदिर को छत्तीसगढ़ का खजुराहो भी
कहा जाता है. इस मंदिर कि तुलना खजुराहो के अलावा उड़ीसा के सूर्य मंदिर से भी की
जाती है. जिस तरह खजुराहो के मंदिर में
हाथ से बनी प्रतिमा किसी को भी हैरान कर देती हैं. वहीं सुंदर शिल्पकला का अनूठा
संगम भोरमदेव मंदिर की प्रतिमाओं में देखने को मिलता है।
खजुराहो के मंदिर और भोरमदेव मंदिर की
प्रतिमा को देखने पर यह विश्वास नहीं होता कि किसी इंसान ने इन्हें बनाया है.
सुंदर शिल्पकला की वजह से खजुराहो की मंदिर से भोरमदेव मंदिर की तुलना की जाती है.
मगर दोनों में समानता है इनके स्थापत्य कला की ..... दोनों ही मंदिर में मैथुन की
विभिन्न मुद्राओं का चित्रांकन जिस खूबसूरती से किया है वह लगभग एक सी प्रतीत होती
है ...... इस मंदिर के मुख्य मंदिर की बाहरी दीवारों पर मिथुन मूर्तियां बनी हुई
हैं. मंदिर की दीवारों पर भी मूर्तियां बनी हुई हैं. इस मंदिर मे सारी कलाकृति
खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों की तरह बनाया गया है.
इस मंदिर की सरंचना कोणार्क मंदिर और
खुजराहो से मिलती जुलती है मंदिर में भी
कोणार्क मंदिर और खुजराहो के समान स्थापत्य शैली में कामुक मूर्तियों के साथ कुछ
वास्तुशिल्प विशेषताओं को जोड़ा गया है
मंदिर की स्थापत्य कलाः
भोरमदेव मंदिर एक बहुत ही
प्राचीन मंदिर है जो नागरशैली में बनाई गई है, पूरे
मंदिर में पत्थरों को काटकर सुंदर नक्काशी की गई है. जो देखने में बहुत ही ज्यादा
खूबसूरत लगती है. इस मंदिर में वैष्णव और जैन प्रतिमाएं भारतीय संस्कृति और कला के
दर्शन कराती हैं. भोरमदेव मंदिर भगवान शिव को समर्पित है, गर्भगृह
मंदिर का प्राथमिक परिक्षेत्र है जहाँ शिव लिंग के रूप में पीठासीन देवता शिव की
पूजा की जाती है।
यह मंदिर पूर्व
मुखी कहा जा सकता है क्योंकि मुख्य मंदिर
में पूर्व की ओर एक प्रवेश द्वार बनाया गया है जो एक ही दिशा का सामना करता है।
इसके अतिरिक्त, दक्षिण और उत्तर दिशाओं के लिए भी दो और
दरवाजे खुलते हैं जबकि, पश्चिमी दिशा की ओर कोई दरवाजा नहीं
है........ मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार में गंगा और यमुना की प्रतिमाएँ दृष्टिगोचर
होती हैं ।
मंदिर में मख्य
शिवलिंग के अलावा के अलावा भगवान शिव और भगवान गणेश के साथ साथ भगवान विष्णु के दस
अवतारों की छवियों को भी दीवारों में चित्रित देखा जा सकता है. साथ ही नरसिंह,
वामन, कृष्ण नटराज जैसी प्रतिमाएं भी हैं । इस मंदिर से जुड़ी वास्तुकला शैली
गुरुर प्रकार की है। भोरमदेव मंदिर की दीवारों पर कई जटिल नक्काशीदार चित्र जड़े
हुए हैं। भोरमदेव मंदिर में केंद्रीय चार स्तंभ मंडप को सहारा देते हैं। यहां भगवान गणेश और भगवान शिव की जटिल नक्काशी भी
देखी जा सकती है।
मंदिर की बाहरी
दीवारों पर मैथुन की 54 मूर्तियां देखी जा सकती है जिनमें संभोग के विभिन्न आसनों
को चित्रात किया गया है इनके अलावा मंदिर की दीवारों पर घोड़े, हाथी और देवी
देवताओं की आकृतियां उकेरी गई हैं ।
मंदिर
परिसर एवं अन्य दर्शनीय स्थल
भोरमदेव मंदिर
जिसमें शिवलिंग स्थापित है के अलावा इसके ठीक पास में इंट औऱ पत्थरोंसे बना एक और
स्ट्रक्चर है जिसे बूढा महादेव मंदिर कहा जाता है और यहां निसंतान दंपत्ति संतान
सुख के लिए मन्नतें मांगती है । यह
वर्तमान में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है, जिसमें
केवल मण्डप है और जिसमें मण्डप और प्रवेश द्वार नहीं है। उमा महेश्वर की छवियों के
साथ यहां एक मूर्ति शिवलिंग की पूजा की जाती है।
इन सबके अलावा कुछ
और स्थानों को अपने आप में समेटे यह परिसर
एक संपूर्ण दर्शन की परिणिति करवाता है जिसमें कुछ प्रमख स्थान हैं
· मड़वा
महल
· छेरकी
महल
· संग्रहालय
· गार्डन
· हनुमान
मंदिर
मड़वा
महल-
मुख्य मंदिर से
दक्षिण दिशा की और जाने पर लगभग 1-1.5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है मड़वा महल, इस मंदिर का निर्माण नागवंशी राजा रामचंद्र देव की पत्नी
के किया गया है। कहा जाता है की यह मंदिर उस समय के नागवंशी राजा और हैहय वंश की
रानी के विवाह के समय बनाया गया था, छत्तीसगढ़ी बोली में मंड़वा का मतलब विवाह मण्डप होता है, इसलिए इस मंदिर का नाम मड़वा महल पड़ा होगा, चूंकि यह मंदिर शादी
मंडप के आकृति का है इसलिए इस मंदिर के
दीवारों पर भी विभिन्न रति क्रीडा की
आकृतियाँ उकेरी हुई मिलती हैं ।
छेरकी
महल
छेरकी महल भोरमदेव
मंदिर के पास ही छेरकी महल है, यह
भी शिव मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण 14वीं शताब्दी में हुआ
था। छत्तीसगढ़ की बोली में बकरी को 'छेरी' कहा जाता है इसलिए यह मान्यता है कि यह मंदिर बकरी चराने वालों को समर्पित
है। पुरातत्व विभाग ने इस मंदिर को संरक्षित स्मारक घोषित किया है। इस ऐतिहातिक
एवं पुरात्व महत्व के छेरकीमहल में शिव भगवान विराजित है। ईंट प्रस्त्र निर्मित इस
मंदिर का मुख पूर्व दिशा की ओर है। 14 वीं सदी के
उत्तरार्द्ध में निर्मित इस मंदिर में छेरी बकरी का गंध आज भी आती है, इसलिए इस मंदिर नुमा महल को छेरकी महल के नाम से जाना जाता है। द्वार चौखट
की शाखा में नीचे चर्तुभुजी शिव एवं द्विभुजी पार्वती देखे जा सकते है। मंदिर का गर्भगृह वर्गाकार है। मध्य में
कृष्ण प्रस्तर निर्मित शिवलिंग जलाधारी पर स्थापित है।
इन प्राचीन
स्मारकों के अतिरिक्त कुछ नई संरचनाएं भी बनाई गई हैं जिनमें गार्डन , संग्रहालय
और सौंदर्य़ीकरण भी शामिल हैं
किवदंती
ऐतिहासिक
जानकारी और पुरातात्विक खोजों से इतर कुछ किवदंती भी प्रचलित है एक प्रचलित किवदंती के मुताबिक मान्यता है कि
यहां के राजा ने 11वीं सदी में इस
मंदिर का निर्माण कराया था. कहा जाता है कि नागवंशी राजा गोपाल देव ने इस मंदिर को
एक रात में बनाने का आदेश दिया था. उस समय 6 महीने की रात और
6 महीने का दिन होता था. राजा के आदेशानुसार इस मंदिर को एक
रात में बनाया गया था. हालांकि कई लोग इन्हें सिर्फ कहानियां बताते हैं. लेकिन कुछ
लोगों का इस किदवंती में विश्वास है.....मान्यताओं का अपना अलग महत्व है जबकि समय
के शोध में कभी भी ऐसी किसी घटना का उल्लखनहीं मिलता जब 6 माह का दिन व 6 माह की
रात हुई हो।
कैसे पहुंचेः
· हवाई मार्ग
– भोरमदेव तक पहुंचने के लिए निकटतम
हवाई अड्डा छत्तीसगढ़ राज्य
की राजधानी रायपुर में है। जो कवर्धा से लगभग 130 किमी दूर
है।
·
रेलमार्ग
– भोरमदेव केलिए निकटतम
रेलवे स्टेशन राज्य की राजधानी रायपुर में है जो कवर्धा से लगभग 120
किमी दूर है।
· सड़क मार्ग- भोरमदेव सड़क मार्ग से बहुत आसानी से पहुंचा जा सकता है मंदिर के नजदीक शहर कवर्धा सड़क मार्ग से रायपुर,
बिलासपुर, दुर्ग शहर से अच्छी तरह जुड़ा
हुआ है और टैक्सी आदि की
सुविधा उपलब्ध है ।


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