दो दीवाने शहर मेः घरौंदा
डा. शंकर शेष की लिखी एक फिल्म आई थी 1977 में .... नाम था -घरौंदा
दो दीवाने शहर में, रात में या दोपहर में, आबोदाना ढूंढते हैं
.....
यह गाना इस फिल्म का है ...... तब मैं न तो आबोदाना का अर्थ
समझता था और शायद न हीं इसके महत्व को जानता था ..... कुछ दिनों पहले अचानक You tube पर यह फिल्म
देखी और उसे आज के साथ समायोजित करने का प्रयास किया तो लगा कुछ मायनों में तो हाल
वही का वही है मगर कुछ मायनों में जैसे पूरा का पूरा समाज बदल गया है .........
महँगी जमीनें..... बिल्डरों के चोचले...... जगह की कमी........ क्या यह आज की समस्या है?
नहीं, यारों तब
भी यह कुछ ऐसा ही था वो शायद 1975-77 का ही तो दौर था
जब डा. शंकर शेष ने अपने आसपास के माहौल को नोटिस करके ये नाटक लिखा रहा होगा
..... क्योंकि मूलतः डा शेष नाटक ही लिखा करते थे
"घरौंदा" फिल्म आज भी उत्कृष्ठ
क्लासिक की श्रेणी में गिनी जाती है......
फिल्म को समझने और जानने के बाद मैंने डा. शंकर शेष के विषय
में खोजबीन की .... क्योंकि मैने उनको सुना जरुर था मगर पढ़ा नहीं था पता चला कि
उन्होंने .....
नागपुर यूनिवर्सिटी से बी.ए. ऑनर्स, वहीँ पी.एच.डी. किया.
फिर मुंबई यूनिवर्सिटी से लिंगविस्टिक में स्नातकोत्तर
किया.
बी.ए. करते ही नागपुर यूनिवर्सिटी में लेक्चरर बने, साथ आकाशवाणी के लिए भी लिखते
रहे .....
अध्यापन के साथ-साथ काव्य लेखन भी किया ...
40+ की उम्र में नाटक लेखन शुरू किया
डा. शेष ने .... इसका मतलब परिपक्व मानसिकता का लेखक दुनिया की बेसिक समस्याओं को
बेहतरी से समझता है ...... ये बात घरौंदा देखकर कोई भी कह सकता है .........
उनके बारे में बहुत कुछ जानने को मिला बाद मे वे बैंक में
राजभाषा के अधिकारी भी हुए ...... मुंबई स्टेट बैंक की नौकरी पर ही शायद उनको
घरौंदा जैसी हकीकत से रुबरु होने का अवसर मिला होगा ......
और वहां जाकर मानवों के समुद्र, और जगह की कमी से शायद उनके दिमाग में
जन्मी घरौंदा की कहानी.
भीमसेन खुराना ने सुना और फिल्म बनाने की योजना बनाई. फिल्म
बनी और खूब बनी .......
गाने लिखे गुलजार ने .... मुख्य स्वर भूपिन्दर का है जो आज
भी भीतर तक उतरने का माद्दा रखता है ....
दो दीवाने शहर में, रात में या दोपहर में आबोदाना ढूंढ़ते हैं आशियाना
ढूंढ़ते हैं. बस यह फ़िल्म का मेन थीम है, घर और रहने
की जगह का संकट ....
शायद इसी लिए नाम घर न होकर घरौंदा रहा होगा ......
छाया (ज़रीना वहाब) और सुदीप (अमोल पालेकर) एक ही
कंपनी में काम करते हैं. उनमें आपस में प्यार हो जाता है........ छाया अपने भाई-भाभी और छोटे भाई के साथ एक कमरे के
चाल में रहती है.........
सुदीप के पास तो रहने का कुछ ठिकाना नहीं है ...... .
वह अपने दोस्तों के साथ सराय में कमरा शेयर करता है........
अब आप सोचिए आज के हालात और तब के हालात में क्या
फर्क है...... तब भी वही जद्दोजहद थी .... आज भी है ..... वही समस्या आज भी है
आबादी बढ़ी मगर जगह तो उतनी ही है न .....
कहानी पर वापस लौटते हैं.....
दोनों शादी के पहले अपना घर ख़रीदना चाहते हैं और एक फर्जी दलाल ( जो आज भी आपके आसपास
मंडराते हैं ) के चक्कर में आ जाते हैं.......
उनका पैसा डूब जाता है......... अमोल पालेकर इससे उबर नहीं
पाते........
यहां पर समस्या को दो भागों में बांट दिया गया है
......
अब समस्या सुदीप ( अमोल ) और छाया ( जरीना) की अलग-अलग हो गई ...
छाया के पास मौक़ा है, उनके बॉस मिस्टर मोदी
(श्रीराम लागू) छाया में अपनी स्वर्गीय पत्नी की छाया देखते हैं और उसे प्रपोज़ कर
देते हैं. छाया उम्रदराज़ और बीमार मोदी की बीवी बनने को राजी हो जाती है, उसे लगता है उसे और उसके परिवार को कम से कम पैसे की तंगी नहीं रहेगी.......
मतलब समस्या साझी नहीं है .... इस आप्शन में केवल छाया की
समस्या हल होते दिखती है ....सुदीप की नहीं ...
आगे देखिए......सुदीप यानी अमोल छाया की ज़िंदगी में वापस आना चाहता है. मोदी भी इस बात से आशंकित हैं को लगता है..... कि शायद छाया सुदीप के साथ चली जाएगी......
यहां भारतीय नारी की छवि हावी कर दी गई ...... और अंत में छाया
जा नहीं पाती.
अब सोचिए क्या आज ऐसा अंत बनाया जा सकता है ....
याद रखें यह फ़िल्म 70 के दशक की है.
छाया जब सुदीप के साथ ना जा कर अपने पति के साथ रहने
का तय करती है, तो वह उसका निर्णय होता है.........
क्या छाया को स्वार्थी मान लिया जाए ....
क्या छाया को प्रेक्टिकल मान लिया जाए .....
फिऱ गुलजार यहां सबसे उपर बाजी मार लेते हैं और लिखते है
एक अकेला इस शहर में .... रात में और दोपहर में ......
अमोल धरातल पर लौट आते है .... घरौंदे की तलाश मे ......


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