मुझे रास्तों की तलाश है: प्यारा दूरदर्शन
दूरदर्शन आज कितना याद
आता है .... पुराने अक्सर याद आते हैं .... चाहे फिल्म हों .... रिश्ते हों .....
लोग हों या फिर शहर...... ठीक उसी तरह हमारा प्यारा दूरदर्शन है .... तब हम इसे
खूब गाली दिया करते थे ... इसके धीमेपन.... पुरानेपन और सीमाओं के चलते ...... आज
लगता है वो कितना सही है .... एक सीरियल आता था दूरदर्शन में ..... 'फिर वही तलाश'.... पता नहीं कैसे आज उसकी याद गई ....... 80 का दौर था शायद..... तब तक भारत
में छतरी साम्राज्य शुरु नहीं हुआ था....... दूरदर्शन अपने सादे मगर सीधे सीरियल्स
में सादा सी कहानियां, रंगमंच से आए कलाकार और साधारण सा ग्लेमर सीधी सादी कहानी कहने की कोशिश करती
थी
उन्हीं सादी और सीधी
कहानी में एक मासूम सी प्रेम कहानी थी फिर वही तलाश इस कहानी को लिखा था रेवती सरन
शर्मा ने......... लगता था कि छोटे से
स्क्रीन में सचमुच कुछ चलते-फिरते वास्तविक लोगों की ज़िंदगी समा गई है. इससे पहले
भी मध्यवर्गीय संघर्ष पर कुछ धारावाहिक हम देख चुके थे मगर 'फिर वही तलाश' ने खामोशी से अपनी जमीन तलाश ली थी।
जो लोग उस दौर से
गुजरे हैं ......जिन्होंने वह वक्त को महसूस किया है उन्हे याद होगा 'फिर वही तलाश' का प्रसारण दोपहर बाद हुआ करता था- तीन बजे के करीब. उस
वक्त शायद दूरदर्शन ने सोचा होगा कि यह शीरियल महिलाओं के लिए है जब
घरेलू महिलाएं फुरसत में हुआ करती थीं तब यह घरों में चालू हो जाता था.......
नरेंद्र और पद्मा की प्रेम कहानी लोगों से जुड़ती चली गई ।
कहानी क्या थी .... बस
आपके हमारे आसपास का किस्सा थी ..... एक विरोधाभासी पक्ष के साथ सकुचाई हुई पद्मा की चंचल-शोख सहेली थी शहनाज़.........
कुछ हद तक गरीबी और मजबूरी नरेंद्र को शांत दिखती थी एक किरदार था वोआत्मविश्वास
से लबरेज कैप्टन सलीम का ...... शहनाज़, पद्मा, नरेन्द्र
और सलीम ....... बस चार लोग 22 एपिसोड तक हमारे भीतर समाते चले जा रहे थे ........ इन्हीं
चार किरदारों के इर्द-गिर्द बुने गए लम्हे थे. उनकी खुशियां,
उनकी चिंताएँ, परेशानियां, शरारतें, कभी उम्मीदों से भर उठना और कभी आसपास निराशा के बादल घिर
जाना..... सभी कुछ बहुत ही साधारण ठंग से कही जाती थी......... यह खूबी शायद लेखक
और निर्देशक की थी कि उन्होंने तमाम छोटे-छोटे किरदारों को जीवित कर दिया था आपको याद होगा नरेंद्र के पिता......... वो थे वीरेंद्र
सक्सेना...... तमस में भी आपने उन्को देखा होगा....... पड़ोस में रहने वाली लड़की
तारा आपको याद होगी जिसे बाद में अनके फिल्मों में सास और मां के किरदार को
संवारते आपने देका होगा नाम था ......हिमानी
शिवपुरी ने. शायद यह सीरियल हिमानी शिवपुरी को पहला सीरियल था ।
इस कहानी के नायक थे डॉ.
अश्विनी कुमार जिन्होंने जिया था नरेंद्र
के किरदार को ......जीवन मूल्यों पर जिसे पक्का यकीन था ......... एक ऐसा किरदार
जो जीवन से लड़ता था अपनी उम्मीदों और आवश्यकताओं के द्वंद्व में पिसता हुआ ......... अभिनय की
दृष्टि से एक औसत अभिनेता कहे जा सकते हैं अश्विनी कुमार मगर..... यही उनकी खूबी
भी बन गई क्योंकि नरेंद्र के किरदार को यही चाहिए था...... एक आम इन्सान सा दिखना
और लगना .........किसी अभिनय की मानों जरुरत ही नहीं थी .....मैनें यह भी सुना था
कि इस धारावाहिक के बाद उन्होंने अभिनय को बाय बाय कह दिया और अपने मूल प्रोफ्शन
में लौट गए .......डॉक्टर बन गए.
अब बात करें पूनम की
........बहुत ही सरल सहज थीं पूनम रेहानी जिन्होंने किरदार पद्मा का था चुपचाप सी
रहने वाली पद्मा का किरदार पूनम ने बखूबी निभाया था........ उन्हे भी इस सीरियल के
बाद मैनें कहीं और देखा........यह सुना
जरुर था कि 'मैंने
प्यार किया' के
लिए उनको परखा गया था मगर शायद हमें सुमन के रुप में उनको देखना नसीब में नहीं था...... नीलिमा अज़ीम की बेहतरीन कलाकारी इस
सीरियल में दिखी थी ........... उनके प्रेमी बने कैप्टन सलीम का रोल निभाया था
राजेश खट्टर ने ।
इस पूरी पटकथा को हम
तक संजोकर जिसने परोसा था उनका नाम था लेख टंडन...... वे मूलतः सिनेमा के निर्देशक
थे और कई सफल फिल्में बनाईं थी .....मगर उस दौर में उनके मन-माफिक कोई फिल्म नहीं
मिली तब उन्होंने दूरदर्शन का परदा इस्तमाल किया....... यह उनका पहला सीरियल था.
उन्होंने रेवती सरन शर्मा की कहानी को बड़ी सादगी से जस-का-तस स्क्रीन पर उतार दिया.
जादूगरी तो रेवती सरन जी की कहानी का ही था.वे रडियो के लिए नाटक लिखते थे ......
उनके रग-रग में रेडियो नाटक बसा हुआ था. दरअसल 'फिर वही तलाश' उनके ही एक रेडियो नाटक 'फिर उसी वीराने की तलाश' की नई बागनी थी...... जो रेडियो नाटक के राजन और रमा थे टेलीविजन के परदे में नरेंद्र और पद्मा बना दिए गए.
चुलबुली शहनाज़ रेडियो में भी थी और टीवी में भी. उसका नाम नहीं बदला गया हां बस उनकी
प्रेम कहानी को दूरदर्शन में विस्तार मिल गया. कहानी बस इतनी सी थी पढ़ाई के लिए
शहर आए एक नौजवान को किसी परिचित की मदद से शहर के एक रईस के आउटहाउस में रहने की
गुंजाइश मिल जाती है. संयोग से उस अमीर व्यक्ति की बेटी भी उसी कॉलेज में पढ़ती
है.
अब थोड़ी चर्चा कहानी
की कर लें .......परिस्थितियां इस तरह करवट लेती हैं कि दोनों के बीच प्रेम हो
जाता है मगर नायिका को परिस्थितिवश किसी और से विवाह करना होता है. एक दिन वह अपने
पति की फैक्टरी में ही उसी युवक को नौकरी करते देखती है. वह उससे मिलती है और अपने
अतीत को याद करती हुए कहती है कि कई साल बीतने के बाद भी वह उसको नहीं भूली है और
अपने पति से तलाक लेकर उसके साथ शादी करने को तैयार है. यहां तक की कहानी दोनों
में एक जैसी है. मगर टीवी में वह अंत बदल दिया गया है.
रेवती सरन शर्मा आज
दुनिया में नहीं है ........वे उर्दू में लिखते थे.... भाषा में मुहावरा और काव्य
उनके लेखन की विशेषता थी ..........'फिर वही तलाश' को देखते समय दर्शक नायक के सपनों से ठीक उसी तरह जुड़ा
महसूस करता है जैसे छोटे शहर की पृष्ठभूमि से आया हर नवयुवक....... रेडियो के नाटक
में रमा और राजन एक-दूसरे से कभी नहीं मिल पाते हैं और शहनाज़ के इस वाक्य के साथ
नाटक का अंत होता है, जब वह रमा से कहती है, "बहुत से सफ़र सितारों के साथ कटते हैं तेरा सफ़र भी ऐसा ही
सही..."
'फिर
वही तलाश'
में ऐसा नही है ...... आप अगर इस तलाश से गुजरना चाहते हैं
तो आप भी यूट्यूब पर इसे खंगाल सकते हैं पूरे 22 अंक उपलब्ध हैं ...... चंदन दास
की मखमली आवाज में इसका थीम सांग है उसको गुनगुनाते रहिए.....
कभी हादसों की डगर
मिले......कभी मुश्किलों का सफ़र मिले
ये चराग़ हैं मेरी राह
के...............मुझे मंज़िलों की तलाश है......
( फोटो सौजन्य - दूरदर्शन)
आप पढ़ रहे थे प्रमोद
को ..

