बैंड बाजा बारात
इस शीर्षक से एक फिल्म आई थी .. मैंने तो नहीं देखी मगर न जाने क्यूं यह शीर्षक इस आलेख के साथ साम्य बिठाता है इसलिए इसी को टाइटल बनाना ठीक लगा ..... टाइटल से याद आय़ा.. टाइटल का भी अपना अलग ही मजा है .. अभी सीजन है... शादियों का ... चारों तरफ बाजे-गाजे, हो-हल्ला ... भीड-भाड़ सहज ही देखने मिल जाता है ..... बारात की शान होती है बैंड-बाजा.... यह शायद शहनाई से आगे बढ़कर बैंड तक पहुंचा होगा क्योंकि पुराने राजा-महाराजाओं के विवाह समारोह मे शहनाई का महत्वपूर्ण स्थान था ..... शहनाई शादी का पर्याय हुआ करती थी .... कहते थे फलां के घर भी इस बार शहनाई बजेगी ...... यह परिवर्तित होकर .... बैंड बाजा कब बजाबे यार .... तक पहुंच गई है ..... बैंड-बाजा का शोर एक तरह से सम्मान का प्रतीक होता है .... मुझे याद है रायपुर में तब सिद्दीकी बेंड पार्टी हुआ करती थी ( आज है या नहीं मुझे नहीं मालूम)..... उसका जलवा था ....... एक और याद आता है....... गुल मोहम्मद बैंड पार्टी....... रायपुर का बंजारी चौक – रहमानिया चौक वाला एरिया इनका फील्ड एरिया था ..... तरह तरह के बैंड घंटे के हिसाब से रेट तय किए जाते थे और आने जाने का रिक्शा किराया अलग से ...... मोल भाव करते समय बजाने वालों की संख्या का भी महत्व होता था 5 आदमी -9 आदमी – 11 आदमी ..... सबके अलग-अलग रेट थे ..... एक साढ़े वाला टर्म भी इस डील में शामिल होता था ..... इस साढ़े का बड़ा अलग ही अंदाज होता था ..... एक बच्चानुमा साजिंदा भी दल में शामिल होकर रौनक बढ़ाता था जिसे हम लोग अपनी भाषा में साढ़े तीन या साढ़े पाँच गिनते थे ......png)
समय एक जगह कभी नहीं रुकता ....... यह हुनर लोगों के कारीगरी का था ......... कारीगरी थी बजाने की ........... कारीगरी मेहनत मांगती है ... रियाज मांगती है.... मगर पेट भोजन मांगता है .... हुनरमंद कम होते गए क्योंकि मेहनत के अनुरुप पैसे नहीं .... और रोजगार की अनिश्चितता अलग.....लोग धीरे -धीरे इस विधा से कन्नी काटने लगे .... और तभी उभरने लगा धुमाल का जलवा ......जहां एक या दो लोग ही काफी होते थे और सस्ते भी ..... दौर आया धुमाल का ......... नेता का पर्चा दाखिला हो .... मुंडन संस्कार हो ... शादी हो .... सगाई हो ..... सब जगह धुमाल पार्टी छा गए .... इस क्षेत्र में भी कुछ नाम अपनी साख बनाने लग गए ...... मुझे उनके ग्रुप के नाम याद नही मगर मैं कुछ नाम सुनता जरुर था ......धुमाल का जलवा थोड़ा मंदा पड़ने लगा जब डीजे का कानफोड़ू शोर बाजार में आया .............. आप बुरा न मानें मगर यह विधा मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं आती क्योंकि ध्वनि प्रदूषण के साथ-साथ गानों की मधुरता के साथ छेड़छाड़ इसी के आने के बाद शुरु हुई जो मुझे व्यकितगत रुप से कभी पसंद नहीं आया .... काँटा लगा ... हाय लगा .........गाते हुए लता मंगेशकर जितनी शोख लगती हैं उतना ही बेहूदा इसका रिमिक्स ..... खैर ये अपनी-अपनी पसंद हो सकती है ..... सबको अपने हिसाब से पसंद तय करने का अधिकार है ...... अभी तो इन्ही रिमिक्स का जलवा है ....... इस डीजे शोर में कुछ मानक तय किए जाने चाहिए 600 वाट , 1200 वाट 1800 वाट........ पता नहीं कितने डेसीबल्स तक इनको ले जाया जाएगा..... तो साब अब डीजे का जमाना है ..... वक्त ने करवट बदल ली है ऐसे में बेंड बाजा कही कहीं इक्का-दुक्का दिखाई देता है तो ऐसा लेख लिखने का मन हो जाता है ..... मैनें इनके अपने प्रोटोकाल को समझने का प्रयास किया तो पाया कि गाना यूँ ही नहीं बजता और उसका कोई उटपटाँग क्रम नहीं होता ..... उस क्रम को तो जनता की फरमाइश के चलते उन्हे तोड़ना पड़ता है ... शुरुआत अक्सर उनकी ओम जय जगदीश हरे से ही की जाती है ....... फिर दूल्हे के घर के सामने .... आज मेरे यार की शादी है से आफिशयली शुरुआत होती है फिर आगे का क्रम जनता के हवाले .... कभी रंगोबती.. तो कभी मेरा नाम चुन चुन चू.... कभी शराबी तो कभी भांगड़ा..... सबसे लोकप्रिय होता है नागिन धुन ..... हर बारात में इतना तो कामन होता ही है ...... आखिर में दुल्हन के घर के सामने जब बहारों फूल बरसाओं ...... बज जाए तो समझ लो क्रम का अंत हो गया क्योंकि यही बैंड बाजे का प्रोटोकाल के हिसाब से आखिरी गीत होता है ..... इसके बाद बजने वाला कोई भी गाना सदन की कार्यवाही में नहीं गिना जाता मतलब यह केवल किसी की जिद का ही नमूना होती है अन्यथा बहारों फूल बरसाओं के बाद बैंड बंद हो जाता है....... हो सकता है कुछ नई परंपराएं भी बन गई हो मगर बैंड-बाजा के बिना बारात कैसी....... @प्रमोद
