बच्चों के सामने जब मैं कैंची शब्द बोलता हूँ तब वे ठीक से समझ नहीं पाते ... उन्हे सीजर कहना पड़ता है .... इसे मैं इस पीढ़ी की प्रगति कहूँ या मेरी अज्ञानता इस पर गहन विचार की जरुरत है ......क्योंकि हम इतने आधुनिक होते जा रहे हैं कि हिन्दी और प्रचलित शब्द हाशिये पर जाने लगे हैं हम नहाने की जगह को नहानी बोलते हुए बड़े हुए मगर आज वो शब्द बाजार से गुम है ...... वाशरुम ने बलात कब्जा कर लिया है .... गांवे के लोग भी अब बाथरुम कहने लगे हैं ...... मैने बार-बार यह कहा हैं कि मुझे किसी भाषा से कोई शिकायत नहीं और न ही बैर है ...... मगर किसी की बलि लेकर जब वह हावी होने लगे ( वह भी अपनी राजभाषा और लोकभाषा पर ) तब थोडा चिंतित होना स्वाभाविक है .... उसके सिवा शायद मेरे जैसा आदमी कुछ कर ही नहीं पाता...... मैं दरअसल आज तक यह समझ ही नहीं पाया कि अँग्रेजी बोलकर मैं कैसे प्रगतिशील ( या संभ्रांत ) बन गया और हिन्दी या अपनी स्थानीय ( बंगाली, उड़िया छत्तीसगढ़ी या कोई भी देसी भाषा ) भाषा बोलकर क्यूँ पिछड़ा हो गया ...... भाषा तो केवल अभिव्यक्ति का माध्यम है न ..... ऐसे तो चीन या रुस या जापान यो कोरिया के ज्यादातर लोग पिछड़े हैं क्योंकि वे अँग्रेजी नही बोलते ....... हम अपनी मानसिकता अपने मालिकों के हिसाब से बनाते हैं ...... अँग्रेजों को आज भी हम अपना मालिक मानते हैं ( यह शायद बरसोबरस गुलाम रहने का नतीजा है) ...........खैर ये चिन्ता अक्सर मुझे सताती है इसलिए प्रसंग कोई भी हो यह घुस जाता है ....... मेरा आज का विषय हिन्दी अँग्रेजी नहीं बल्कि कुछ और है ....... आपने भी साइकल चलाई होगी ..... औऱ अगर मेरे हमउम्र होंगे तो साइकल की कैंची से वाकिफ होंगे............ हमने अपने जमाने में साइकल चलाना तीन चरणों में सीखा था,
पहला
चरण - कैंची
दूसरा
चरण - डंडा
तीसरा
चरण - गद्दी ...
आज
तो साइकल भी हाइटेक हो गए हैं ..... लाख रुपये तक की साइकल आती है ...... लोगों को
मैने कार में साइकल लादकर ग्राउंड तक ले जाते देखा है फिर वहां उतरकर सिकल
चलाते ...... अग मै तब की बात करुं तो ...तब
साइकिल की ऊंचाई 24 इंच हुआ करती थी( कुछ साइकल 18 इंच की भी आती थी )जो खड़े होने पर
हमारे कंधे के बराबर आती थी ऐसी साइकिल से गद्दी यानी सीट पर चलाना संभव नहीं होता
था। शायद इसीलिए कैंची की कला इजाद हुई
होगी....
कैंची
वो कला होती थी जहां हम साइकिल के फ़्रेम में बने त्रिकोण के बीच घुस कर दोनो
पैरों को दोनो पैडल पर रख कर चलाते थे। अब तो न फ्रेम रहा न कैंची ........और जब
हम ऐसे चलाते थे तो अपना सीना_तान कर टेढ़ा होकर हैंडिल के पीछे
से चेहरा बाहर निकाल लेते थे, और ट्रिंन-ट्रिन करके घंटी इसलिए बजाते थे ताकी सड़क पर या फिर
आंगन में बैठे लोग देख सकें की मुन्ना साईकिल दौड़ा रहा है, इस दौर में यह रोमांच गुम हो गया है आज की
पीढ़ी इस "एडवेंचर" से महरूम है उन्हे नहीं पता की आठ दस साल की उमर में 24 इंच की साइकिल चलाना किसी
एरोप्लेन के पाइलट से कम फीलिंग नहीं देती
थी....... इस प्रयास में हमने न जाने कितने बार अपने घुटने और मुंह तुड़वाए होंगे
और गज़ब की बात ये है कि तब दर्द भी नहीं होता था, गिरने के बाद चारो तरफ देख कर चुपचाप खड़े हो जाते थे अपना हाफ पेंट
पोंछते हुए........ हां जी तब हाफ पेंट ही पहनते थे .... बरमूड़ा या लोवर या थ्री
फोर्थ जैसा कोई आविष्कार इस ब्रम्हांड में
नहीं आया था ......
समय
बदलता है ..... बदलना भी चाहिए ..... ठहरा हुआ पानी बदबूदार होता है ....... अब
तकनीकी ने बहुत तरक्क़ी कर ली है पांच साल के होते ही बच्चे साइकिल चलाने लगते हैं
वो भी बिना गिरे......... दो दो फिट की साइकिल बाजार में आ गयी है, और बड़े घरों के बच्चे तो अब सीधे गाड़ी चलाते हैं ........ये
बच्चे
कभी नहीं समझ पाएंगे कि उस छोटी सी उम्र में बड़ी साइकिल पर संतुलन बनाना जीवन की पहली शिक्षा होती थी..... इस संतुलन से हम समाज को समझते थे कैसे जिम्मेदारियाँ
हमारा परीक्षा लेगी और यह जिम्मेदारी दे दी जाती थी कि हम अब आप गेहूं पिसाने लायक हो गये हैं.......
घर
से चक्की तक साइकिल ढुलगाते हुए जाइए और वापस से कैंची चलाते हुए घर आइए.......
......
यकीन मानिए उस दौर की इस जिम्मेदारी को निभाने में खुशियां भी बड़ी गजब की होती थी......
शायद
उस कैंची ने जिम्मेदारियों का पहला अध्याय पढ़ाना बंद कर दिया है ..... अब सीधे
डिग्री मिलने लगीं है .........सच है की हमारे बाद "कैंची" प्रथा विलुप्त हो गयी ।
आपको
बता दूँ हम लोग की दुनिया की उस
खुशनसीब पीढ़ी से हैं जिसने साइकिल चलाना
तीन चरणों में सीखा ......
@प्रमोद

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