साइकल और सीख ...
पोस्ट पढ़ने से पहले ही जान लें इसका
राजनीति से कोई लेना देना नहीं है यह नितांत गैर राजनैतिक पोस्ट है....... दो दिन
पहले की ही बात है .... चिंरजीव निश्चय (अंशु) साइकल चलाते-चलाते घर के सामने ही
गिर गया ..... सड़क शानदार थी इसलिए खरोंच और चोट के साथ-साथ खून का निकलना भी
लाजिमी था ..... रोते-रोते घर पहुंचा ..... पीछे-पीछे ...पूरी सेना ... जो यह
बताने का पूरा प्रयास कर रही थी कि अंशु के साइकल से गिरने और उसको चोट लगने में
उनमें से किसी का भी कोई हाथ नहीं था ....क्योंकि वे कोई आतंकवादी संगठन नहीं थे
जो किसी घटना के बाद उसकी जिम्मेदारी ले लेते........ मगर उनकी भावनाएं और इस
साइकल दुर्घटना में अंशु के प्रति संवेदनाएं सहज ही उन सब की आंखों में पढ़ी जा
सकती थी ..... एक बात और मैने नोटिस की कि आम तौर पर नटखट और गैर जिम्मेदार सी
लगने वाली ऐसी वानस सेना ऐसे मौकों पर जिम्मेदार हो जाती है .... तुरंत सेवा में
लग जाती है ..... कुछ तो यह हमारे समाज का संस्कार है और कुछ मानवीय गुण .... खैर
दोस्तों और मंडली के भावनाओं के बाद मैनें पढ़ना शुरु किया ....माँ की भावना को
........ उसी समय रानी स्कूल से आई थी .... ठीक से बैठ भी नही पाई थी कि बेटा आ
गया रोते-रोते ..... उपर से खून का लाल रंग ...... “य़े
दई मोर लइका ला लागगे...... “
वाली भावना बलवती हो उठी
और तुरंत फस्ट एड बाक्स के लिए घर में पूरा कुनबा लगा दिया गया .... गनीमत है
बाक्स भी तुरंत मिल गया वरना एक और भूचाल आने की पूरी आशंका थी ......जैसे तैसे
ड्रेसिंग हुआ रोना-गाना बंद हुआ और साहबजादे अपने नियत काम यानी टीवी देखने में
मशगूल हो गए ....... मैं अपनी आदत से मजबूर पूरे घटनाक्रम को देखता-सोचता और
विश्लेषण करता यही सोच रहा था ... कि समय में कितना बदलाव आ गया है ..... अंशु अब
टीवी देखने मे मशगूल हो चुका था इसलिए मैनें भीड़े मास्टर वाली भूमिका संभाली और
बताने लगा ...... हमारे जमाने में ..... हम जब
साइकल चलाते थे ..... तो अक्सर गिर जाया करते थे .... मगर रोते नहीं थे
..... मैने उसको यह भी बताया कि ऐसा नहीं था हमारे हाथ-पैर छिलते नहीं थे .... मगर
उसको घर में बताने का साहस नहीं होता था ..... क्योंकि उल्टा डांट पड़ने का अंदेशा
बना रहता था .......मैं उसे समझाने लगा साथ ही खुद को भी ...... कि किस तरह से
साइकल हमें जिंदगी के सबक सिखाती है .... अब तो बच्चे बिना गिरे ही साइकल सीख जाते
हैं .... कुछ तो साइकल सीखे बिना मोटर साइकल सीखते हैं .... और कुछ दुपहिया चलाना
सीखे बिना कार चलाते हैं......ये वो लोग हेते हैं जिन्होनें जिंदगी में असफलता या
नकारने की स्थिति को देखा और भोगा नहीं है .... इसलिए जब इनके सामने मामूली
परेशानी आती है तो ये आत्महत्या या डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं ...... दरअसल
साइकल हमें जीना सिखाती है ..... हमें असफलताओं को झेलने के गुर सिखाती है ....
साइकल केवल चक्कों का संतुलन नहीं वल्कि जीवन का संतुलन सिखाती है ..... अंशु मेरी
बातें सुनता रहा ..... पता नहीं उसको कितना समझ में आय़ा मगर मुझे इतना जरुर समझ
में आया कि हमे बच्चों को जीवन में रिजेक्ट होने या असफल होने के बाद की मनोदशा मे
जीने के अवसर भी उपलब्ध करवाने चाहिए ..... अगर वो इन परिस्थितियों से गुजरेगा तो
बेहतर इन्सान बनेगा ...... बेहतर इंसान जीवन में बड़ा आदमी बनता है ..... वैसे भी
हर सफल आदमी बड़ा आदमी हो जरुरी नहीं .... मगर हर बड़ा आदमी जीवन में सफल आदमी
बनने की कुब्वत रखता है
@प्रमोद
