पता नहीं क्यों 1980-90 वाला दौर मेरे जहन के किसी कोने में स्थाई घर बना चुका है , गाहे-ब-गाहे अपनी आमद बता ही देता है .... बताता क्या है लिखवा ही लेता है कुछ-न-कुछ.... पढ़ना हर किसी का शौक होता है कोई कम पढ़ता है कोई ज्यादा....कोई मजबूरी में पढ़ता है तो कोई शौक से .... जो भी हो पढ़े बिना कुछ गढ़ना भी संभव नहीं ....टाइटल से समझ ही गए होंगे कि आज बारी उपन्यासों की है .... हम भी शौकीन थे साहब .... पाकेट बुक्स की दीवानगी ने कितने जासूसी किस्से सुनाए होंगे पता नहीं ....
छोटा-मोटा शरलक होम्स तो उस दौर के सभी युवा हो ही गए होंगे......... पता नहीं कब चंपक, नंदन, साबू और चाचा चौधरी से दूरी बनी और वेद प्रकाश शर्मा का कब्जा हो गया .... कुछ ठीक से बता पाना संभव नहीं ....तब रायपुर में लाइब्रेरी गिनी चुनी थी आनंद समाज और आश्रम की लाइब्रेरी के संस्कार में ऐसी पुस्तकों को सोचना भी अपराध था .... हांलाकि ये दोनों लाइब्रेरी ने मेरी अध्ययन क्षुधा को काफी पानी पिलाया ... आज भी मैं इन दोनों लाइब्रेरी के साथ साथ शारदा चौक के आरडीए भवन वाली लाइब्रेरी का शुक्रगुजार हूँ जहां आप उन दिनों शांति से बैठकर पढ़ने का आनंद ले सकते थे .... खैर बात थोड़ी गंभीर होने लगी है .... लौटते हैं वापस वर्दी वाले की तरफ ..... साहित्य के साथ हमेशा से दिक्कत रही कि जो बिकती नहीं वो उत्कृष्ट कही जाती है और जो बिकती है उसे बाजारु या चलताउ कह दिया जाता है ... खैर ये बहस उन महान लोगों पर छोड़ दें जो वाकई इस विधा के जानकार और विशेषज्ञ हैं..... हम ठहरे कामन लोग .... हमें इन गंभीर बातों से दूर ही रखें .....एक अलग किस्म का साहित्य जिसे उस दौर में लुगदी साहित्य कहा जाता था उसके बड़े कद्दावर नाम थे वेद प्रकाश शर्मा... जिनके कायल थे ये वाले शर्मा जो पोस्ट लिख रहे .... स्कूल कालेज का दौर था ऐसे में उपन्यास पढ़ने वाला बच्चा कभी भी अच्छा बच्चा की श्रेणी में नहीं आता .... जो भी हो तब सत्ती बाजार में एक किताब की किराए वाली दुकान हुआ करती थी जहां 25 पैसे रोज के हिसाब से हमारा यह मनपसंद साहित्य उपलब्ध हो जाता था .... बस उसे एक रात में खतम करना ही 20-20 मैच में लक्ष्य हासिल करने जैसा बात होती थी .... क्योंकि तब दूसरे दिन का किराया देना बजट से बाहर की बात थी ..... जो भी हो वेदप्रकाश शर्मा का लिखा हर उपन्यास हमको पसंद आता था .... उन दिनों हम उनके बारे में ज्यादा नहीं जान पाए थे ... बस नावेल पढ़ते और फिर उसके कल्पना लोक में खो जाते थे .... बाद में जब थोड़ी समझ बनी तब इन सबके बारे में खंगालना शुरु किया तब कुछ बाते पता चली जो आज की पोस्ट में साझा करना भी जरुरी है .......थ्रिलर श्रेणी के उपन्यासों में यह क्रांतिकारी उपन्यास मानी जाती है क्योंकि तब पहले ही दिन इस नावेल की 15 लाख प्रतियाँ बिक गई थी....अगर आपने यह उपन्यास पढ़ी हो तो आपको इसमें स्वर्गीय राजीव गांधी की हत्या वाला प्रसंग भी कहीं पर मिल जाएगा .... तत्कालीन घटनाक्रम को अपनी कहानी में जोड़कर उसे थोड़ा रियलिस्टिक एप्रोच देना लेखक की खासियत थी ....आपमें से बहुतों ने अक्षय कुमार की सबसे बड़ा खिलाड़ी देखी होगी .... यह मूलतः वेदप्रकाश शर्मा को नावेल लल्लू पर ही आधारित थी अक्षय कुमार की कुछ फिल्मों के पटकथा को भी वेदप्रकाश ने ही लिखा था ...... जो भी हो मेरी पढ़ने की रुचि जगाने में ऐसी साहित्यों को बड़ा हाथ रहा इसलिए मैं कभी भी इनको निम्न स्तर या सस्ता साहित्य नहीं कहता ... मैं गुलजार साहब के गंभीर गाने भी उसी आनंद से सुनता हूँ जितना शेख हुसैन की ददरिया ..... बात आपकी रुचि और दिल को तसल्ली देने की है ..... मंगल होटल के समोसे में मुझे वो स्वाद आता है जो मंजू ममता के दोसे में भी नहीं आता .... सब अपनी अपनी पसंद का मामला है .... आप किसी को कमतर न आंके .... सबके अपने अपने महत्व हैं ....... चलिए पोस्ट की पुरौनी सुन लीजिए .....
वो खामोश होकर भी बहुत कुछ बोल गया
और तुम चीख-चीख कर भी बता न सके....
@प्रमोद

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