पुरौनी या डिस्काउंट
पिछलो दिनों श्रीमतीजी के साथ सब्जी बाजार
में टहल रहा था.... टहल रहा था इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि न तो मैं सब्जी के चयन
में कोई रुचि लेता हूँ औऱ न ही मोल-भाव में .... मैं केवल कैशियर के रोल को ही
जीता हूँ ...... मगर इतना जरुर है कि मैं जाता जरुर हूं ... पता नहीं क्यों मै
लोगों को... स्थितियों को .... मानसिकता को ... समझने या आकलन करने में खूब रुचि
लेता हूँ ...... मुझे शुरु से सिनेमा देखने से ज्यादा साइकल स्टैंड में साइकल रखने
से लेकर टिकट क़टाने और फिर पहले घुसकर सीट “पोगराने”
में ज्यादा आनंद आता था.... पोगराने शब्द शायद हिन्दी और अंग्रेजी के पाठको को नया
लग रहा होगा और वे सोच भी रहे होंगे कि इसकी जगह मैं हिन्दी का कोई दूसरा उपयुक्त
शब्द क्यों नहीं ले रहा .... मगर इस तरह के प्रयोग से मुझे लेखन में मजा आता है
.... रही बात साइकल स्टैंड और जगह “पोगराने”
की .. तो यह हमारे जाने की बात हैं ( बकौल मास्टर भिड़े) तब “अपर-लोवर”
क्लास में सीट पर कब्जा करना एक अलग ही आर्ट था जो हर किसी के बस में नहीं होता था.....खैर
हम सब्जी बाजार में थे न..... मैं अक्सर देखता हूं कि श्रीमती जी कभी भी बाजार में
घुसते ही सब्जी नहीं लेती थी.... एक राउंड पूरे बाजार का लेना उनका परम धरम है ...
बिना परिक्रमा के कोई भी सब्जी क्रय करना मानों उनके नियमावली में शामिल नहीं
........एक बार पूरा बाजार घूमने के बाद भले वह पहले वाली सब्जी वाले से खरीदे मगर
एक चक्कर लेना जरुरी है ....... हर बार मोल-भाव करना भी जरुरी है..... पूरी
लेन-देन के बाद जब मैं बजट का एनालिसिस करुं तो 10 या 20 प्रतिशत का ही अंतर रहता
होगा मगर यह एक ऐसा काम है जिसके बिना बाजर में सब्जी खरीदने का आनंद ही नहीं आता
..... मैं बस मौन रहकर मजे लेता हूँ ..... कभी कभी तो कुछ सब्जी वाले मेरी ओर
देखकर हंस भी देते हैं ( शायद उन्हे मेरी मासूमियत या निरीहपने पर तरह आता हो)
...... बात “पुरौनी”
से शुरु हुई थी जो अधूरी ही रह गई ..... मैनें यह देखा है कि सब्जी खरीदने समय
पुरौनी मांगने की एक परंपरा है ( हो सकता छत्तीसगढ़ से बाहर इसे कोई और नाम से
पुकारा जाता हो) यह पंरपरा भी शायद
पीढ़ियों से चला आ रहा है .... मैनें यह आदत मेरी माँ या उनकी पीढ़ी के महिलाओं
में भी देखी थी ..... ज्यादा टेंशन में न आएं... पुरौनी शब्द के शब्दार्थ को लेकर
.... मैं इसे एक तरह की बख्शीस ही मानता हूँ .... जो एक खरीददार बेचने वाले से
उम्मीद करता है...... “2 जूरी ( बंडल) की जगह 1 जुरी पुरो न”....
या 5 रुपये की मिर्ची लेते समय “थोकन पुरो न”
.... जेसे वाक्य बाजार में बहुत आम है .....शायद बड़े व्यापारी खरीददार की इस
मानसिकता को पढ़ने में कामयाब रहे होगे औऱ
इसी से डिस्काउँट या एक पर एक फ्री वाला कान्सेप्ट आया होगा ..... बड़ी डील में इस
पुरौनी के कान्सेप्ट ने बड़ा खेल रचाया है .... मार्केटिंग के एक्सपर्ट इस तकनीक
को बायवन गेटवन फ्री या फेस्टीवल आफर या बिग सेल के नाम से खूब भूना रहे हैं ...
आनलाइन मार्केट ने तो इसका सबसे ज्यादा दोहन किया है ...हमारी पुरानी परंपराएं
वाकई समृद्ध हैं ... अब इस लेख में और कुछ पुरौनी देते हुए कुछ पंक्तियां भी परोस
रहा हूँ .... आनंद लीजिएगा....
दिल्ली ही नहीं लंदन भी हो आया मैं..
तू यहां भी रही तेरा वजूद वहां भी रहा...
@प्रमोद
