अगहन बिरसपत (गुरुवार) और 80-90 का दशक
त्यौहारों या उत्सव मनाने के मौकों की भरमार
है हमारे परंपराओं में ..... दीपावली के पहले और बाद एक लंबी श्रंखला है ऐसे रंगबिरंगे पर्वों का ...... देश
के बाकी हिस्सों का तो पता नहीं मगर छत्तीसगढ़ में अगहन बिरसपत ( गुरुवार) की अपनी
समृद्ध परंपरा रही है ....... मुझे अपने पुराने दिनों से इस साप्ताहिक उत्सव के
कुछ पल स्मृति पटल पर छपे हुए से लगते हैं ..... चूंकि यह एक लंबा चलने वाला उत्सव
है इसलिए शायद इसकी अपनी अलग छाप रही है ... माह भर तक चलते रहने के बाद भी इसका
उत्साह बना रहता है ...... जैसे रविवार की छुट्टी का अहसास शनिवार को ज्यादा रहता
है और सनडे आते ही लगता है कल तो फिर काम पर जाना है ... ठीक उसीतरह गुरुवार से
पहले सारा उत्साह बुधवार को ही जी लिया जाता है .. क्योंकि सारी तैयारी , पूरे घर
की साफ सफाई और रंगोली बनाना सब कुछ बुधवार को ही निपटाना होता था ..... मान्यता
यह है कि गुरुवार को झाड़ू को छूना नहीं .... कोई सफाई नहीं ...... सब एक दिन पहले
........ उन दिनों में इस गुरुवार के अलग ही प्रोटोकाल होते थे ..... नकद खर्च
नहीं किया जाता था.... सब्जी वाला भी उस दिन उधार ही देता था ...... कोई सवाल नहीं
बस सब्जी तौलौ ... और निकल लो .... हिसाब-किताब कल होगा ........ ये पूरे महीने
चलता था ... हर बुघवार भरपूर खरीदी ... और गुरुवार जेब बंद .... रंगोली का भी तब
कोई फैसीं स्वरुप नहीं दिखता था ...... चाँवल को रात में भिगोकर रेहन बनाया जाता
था फिर उसी से सारे चौक-चांदन किए जाते थे ..... ये परंपरा आज भी कुछ घरों में
मैने देखी है ..... मगर समय के साथ और महिलाओं के कामकाजी होने के कारण धीरे धीरे
इसका स्वरुप बदलता जा रहा है ..... बदलाव का मैं कभी विरोधी नही रहा ..... जब जीवन
सहज हो तभी किसी परंपरा को निभाना चाहिए.......तब की अगरबात करुं तो ये जान लो उन
दिनों गुरुवार को शरीर में तेल लगाना-साबुन से नहाना तक निषिद्ध था ..... सुबह 4 बजे
से लक्ष्मी की पूजा-आरती ..... दिन मे तीन बार विधिपूर्वक पूजन आदि की पंरपरा से
अगहन गुरुवार की महत्ता ही अलग हो जाती थी ......
प्राचीन पंरपराओं के साथ निश्चित रुप से
विज्ञान जुड़ा होता था .... निसंदेह इन
पंरपराओं ने भी किसी विज्ञान के साथ संबंधता रखी होगी ... जो सप्ताह में एक दिन
खर्च न करके मितव्ययता और एक दिन पूर्व पूरी साफ सफाई के द्वारा स्च्छता के संदेश
को धर्म के आवरण में प्रसारित करने का प्रयास किया होगा ...... और भी कारण होंगे ..... मगर
विज्ञान ने धर्म को और घर्म ने विज्ञान को साथ रहकर यह जरुर बताया है कि बातों को
समझाने के जो भी तरीके हों मानव उसे उसी ढंग से स्वीकार कर लेता है जैसे उसे परोसा
जाता है ...... बस बात समझाने का तरीका सही होना चाहिए .....
