वक्त बदलता है..... बदलना भी चाहिए.... परिवर्तन होते रहते हैं... क्योंकि परिवर्तन संसार का नियम है... वक्त के साथ-साथ बहुत कुछ बदला है , हमारी जीवन शैली भी बदल गई है.... कुछ चीजें हमारे लिए अपरिहार्य हो गई हैं .... आज से 10-15 साल पहले तक जो विलासिता की वस्तु थी वो आज अनिवार्यता बन गई थी .... 30 साल पहले जिसका वजूद नहीं के बराबर था ...उस वस्तु के बिना आज जीवन की कल्पना करना बेमानी है ...... जी हां मैं आपके और हमारे सबसे प्रिय वस्तु मोबाइल की बात कर रहा हूँ ......आज हम इसके बिना जीवन जीने की सोच भी नहीं पाते ..... सिरहाने मोबाइल रखकर सोना हमारी आदत बन गई है ...... घर से बाहर निकलते समय हम अपना बटुआ भले चेक न करें मगर जेब में मोबाइल है या नहीं यह जरुर देखते हैं .... क्योंकि अब तो मोबाइल ही बटुआ भी बन गया है .... पेटीएम, फोन पे, गुगल पे, औऱ न जाने क्या -क्या...... .समय के साथ-साथ इन्सान का बदलना लाजिमी है ....मगर मैं आज भी मानता हूँ कि पुराने जमाने में जो मान्यताएं थी या जो जीवन नियम थे वो बहुत ही वैज्ञानिक थे और तब के लोग किसी भी बात के सकारात्मक लाभ के साथ-साथ नकारात्मक परिणाम का अंदाजा भी कर लेते थे.............. उससे निपटने के कुछ सामाजिक नियम बनाते थे जिसको धर्म या भगवान से जोड़कर उसका पालन करना सुनिश्चित कर लिया करते थे ..... आज ऐसा नही है हम आविष्कार तो करते हैं मगर उसके दुष्परिणाम के बारे मे कोई सार्थक निदान सोचे बिना ही उसको उपयोग में ले आते हैं........ हमारी जीवन शैली बदली है ...... जो काम करने हम लोटा लेकर हर सुबह खेतों में जाते थे उसको हमने अपने बेडरुम के किनारे सजा लिया है और जिस काम को घर के अंदर सभी के साथ बैठकर करने में मजा आता था ( खाना ) उस काम को करने के लिए घर से दूर खेतों में (ढाबा संस्कृति) जगह तलाशते हैं और उसे गर्व तथा स्टेटस का पैमाना बना रखा है ........ इसमें मैं भी शामिल हूँ .... किसी खास को दोष देना ठीक नहीं ..........
पहले घरों के दरवाजे पर एक बाल्टी में पानी रखा जाता था ताकि बाहर से आने वाला हर शख्स घरों में घुसने से पहले अपने हाथ-पैर धोकर प्रवेश करे ........ यह सीख कोविड ने फिर हमको बताई ............ मगर हम कहां मानने वाले हैं ......... मास्क उतर गए .....हाथ धोने की आवृति भी कम हो गई ..... वापस हम अपने मार्डन होने का जश्न मनाने लगे ...... अब पुराने परंपराओं को मानने वाला दकियानूसी हो गया ...... घरों में डाइनिंग टेबल ने पालथी मारकर बैठकर खाने की प्रथा ही खत्म कर दी है .........नतीजा पेट की शिकायतें आम हो गई ...... डिप्रेशन नामक नए शब्द ने शब्दावली में जगह बना ली है ........ मैं विषय से हट नहीं रहा हूँ केवल उसके प्रस्तावना को थोड़ा लम्बा कर डाला....... सब काम शासन और प्रशासन के भरोसे छोड़ रखा है ....... हमारी खुद की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं ........कुछ दिनों पहले मैनें फेसबुक पर ही एक पोस्ट लिखी थी कि क्या फिर से लाकडाउन ( सप्ताह या माह में एक दिन ) नहीं लगाया जा सकता ...... हो सकता है इससे सरकार को थोड़ी राजस्व की हानि हो मगर उस कीमत पर प्रकृति , पर्यावरण और सांसों को जो मिलेगा उसका कोई मोल नहीं .......अब मूल बात पर आता हूँ क्योंकि पोस्ट थोड़ा लंबा हो गया......... मोबाइल के नुकसान से सभी भली-भाँति परिचित हैं इसलिए इस पर कुछ लिखना ठीक नहीं ...... मेरी निजी राय है कि यदि हम सप्ताह में एक दिन मोबाइल का उपयोग न करें और मोबाइल फास्ट का पालन करें तो कैसा हो......... अपने स्तर पर इसका पहल किया जा सकता है .....कोई भी एक दिन तय कर लें और उस दिन मोबाइल से पूरा दूर रहें ............आपको याद होगा हमारे घरों में बुजुर्ग एकादशी का व्रत रखते थे .... आज भी कुछ घरों में यह कायम होगा ...... कुछ लोग आज भी सप्ताह में एक दिन किसी इष्ट देवी-देवता के नाम पर उपवास रखते हैं ...... यह परंपरा पुराने वैज्ञानिक सोच का नतीजा है जब हमारे समाज में खाने पीने की तरह-तरह की चीजें उपलब्ध थी फल-फूल बहुतायात में मिलते थे इसलिए पाचन और हाजमा बनाए रखने के लिए उपवास के नियम को धर्म से जोड़कर पालनीय बनाया गया ..... क्योंकि किसी भी धर्म में कोई भी भगवान ऐसा नहीं कहते कि मेरी पूजा करने के लिए आप पूरा दिन भूखे रहों ...... यह तो तब के बुजुर्गों की दूरदर्शी सोच से उपजा अन्वेषण था ..... रेगिस्तानी जमीन पर उपजी और पनपी इस्लाम में रेतीले तूफान से बचने के लिए चेहरा ढंकना जरुरी किया गया जो बाद में बुरका प्रथा बन गई ......इसी तरह से अनेक ऐसी परंपराएं हैं जो हमें बताती है कि भविष्य की चिंता किए बिना यदि वर्तमान में आगे बढ़ते रहें तो मानव समाज एक दिन बड़ी मुसीबत में फंसेगा ....... कोरोना ने यह दिखाया भी है जब भागती दौड़ती जिंदगी को दो साल तक घरों में कैद कर दिया था .............हमें भविष्य को देखना होगा और खुद से कुछ सोचना होगा .......
@प्रमोद

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