छत्तीसगढ़ अपने आप में एक अनोखा प्रदेश हैं ..... यहां सी संस्कृति में विविधता के अनेक सोपान है ....... आज मन हुआ कुछ पुराने बातों को फिर से ताजा करने का .............. अगर आप 70-80 के दशक की या उससे पहले की पैदाइश हैं तो ...... आपको याद होगा...... हम अपने खून के रिश्तों के अलावा कुछ और रिश्तों में अपनापन खोज लेते थे.......
हमने बहुत बाद में अंकल-आंटी........ बोलना शुरु किया है ...... हममे से कुछ तो आज भी नहीं बोल पाते ..... जिनमे से एक मैं भी हूँ ...... आज भी मैं किसी भी सज्जन को चाहे वो बड़ा हो या छोटा ..... भैया कहकर ही संबोधित करता हूँ ....... अंकल तो शायद ही कभी बोला होउंगा .......अब तो खैर खुद ही अंकल हो चले हैं ....... मगर फिर भी ...... भैया में अपनापन ज्यादा लगता है ......... कुछ संबोधन हमने बोलना छोड़ दिया है ....... शायद वैसे रिश्ते भी अब नहीं रह गए .......... आइए कुछ पुराने प्रचलित संबोधनों पर गौर करें ...... एक होता था ... “कका” .... जो अंकल का वास्तविक पर्यायवाची है ..... सबसे ज्यादा यही रिश्ता चलता था ...... तब काका और चाचा भी चलते थे मगर गांव देहात में “कका” वाला संबोधन सबसे ज्यादा पापुलर था ........एक होता था “फूलददा” ..... “फूलदाई” ..... “मितान” ..... न जाने कितने ऐसे संबोधन हैं जो खो से गए हैं ......”डोकरी दाई” औऱ “डोकरा ददा” कोई अपमान सूचक नहीं वरन प्यार के संबोधन थे ....... “ददा” वाला संबोधन तो लापता हो गया है ..... “पापा” ने उसकी जगह कब्जा जमा लिया .......”नानी” आज भी चल रही है .मगर “ममा दाई” की बात ही निराली थी ....... “भांटो” बदल गया जीजाजी में ...... आज आपके घर में काम करने वाली महिला “बाई” कहलाती है जबकि एक दौर था जब पत्नी को यह सम्मान प्राप्त था ...... बताओं ….कैसे कैसे संबोधन बदलने लगे हैं ......फूफाजी का जलवा बरकरार है क्योंकि इसका कोई सप्लीमेंट्री मार्केट में नहीं आया....... नानी के बारे में “ममा दाई” भी पापुलर शब्द था ......”बड़े दाई”, “बड़े ददा” ,”बबा” जैसे संबोधन भी खो से गए हैं ...... दादाजी कायम है “बबा” गुम हो गए... ......... कुछ खो सा गया है ..... मैं उनकी तलाश में हूँ ...... आपको भी कुछ संबोधन याद आ रहे हों तो बताइएगा.....
आपने पढ़ा प्रमोद को


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