हिन्दी के पाठक इस नाम से अनजान हों यह मैं मान नहीं सकता ..... और वो भी जो 90 के पहले के दशक में पढ़ना लिखना सीख गया हो ......... लुगदी साहित्य के दौर का जाना पहचाना नाम था गुलशन नंदा .............. अपने दौर में गुलशन नंदा रुमानी साहित्य की पहचान थे । 60 के दशक के शुरुआत से लेकर 80 के उतरार्ध तक वे नावेल के साथ-साथ दर्जनों सिल्वर जुबिली, गोल्डन जुबिली फिल्मों को भी अपनी कलम की ताकत से सफल बना चुके थे इस सफलता के बाद भी नंदा को एक साहित्यकार के रुप में हिन्दी पट्टी उसे स्वीकर नहीं करती थी ..........उस दौर की में युवा के गुलशन नंदा के नायकों मे खुद को तलाशता था ........ गुलशन नंदा जैसे लेखकों की सफलता की इमारत दरअसल इन्ही युवाओं के पठन-पाठन से मजबूत हुई थी ..... यह वो दौर था जब उपन्यास पढ़ना अपराध की श्रेणी में माना जाता था । छुप-छुप के पढ़े जाने के उस दौर में गुलशन नंदा सबसे बड़े नाम थे औऱ उनके उपन्यास सिरहाने रखे मिल जाते थे ।
गुलशन नंदा की आमद से पहले जासूसी उपन्यास पाठकों की पहली
पसंद हुआ करत थे...... वो 60का दशक था जब नंदा एक फार्मूले को सफलता का पर्याय
बनाने की फिराक में लगे थे ..... जिसमें बाद में वे सफल भी हुए ..... गुलशन नंदा
ने अमीर-गरीब के प्यार का ऐसा फॉर्मूला तैयार किया कि रोमांटिक उपन्यासों की एक नई
धारा विकसित हो गई ...............हिंदी में आधुनिकतावादी तर्क को आधार बनाकर
गंभीर यथार्थवादी उपन्यासों के इसदौर में
सेंध लगाई गुलशन नंदा ने, गुलशन नंदा ने एक
रुमानी संसार रचा ..... जिसमें युवा अपने आपको तलाशने लगे ।
गुलशन नंदा ने संयोगों
को अपने कथानक का आधार बनाया ......अमीर-गरीब
का फार्मूला वैसे भी हमेशा से चलता रहा है .... फिर... जुड़वां भाई, जन्म-जन्मांतर का प्रेम, शहरी बाबू-गांव की छोरी जैसे कुछ और प्रयोग देखने मिले
...... सब के सब चल निकले ...... इन कथानकों को अपनी विशुद्ध शायराना भाषा में पिरोकर गुलशन नंदा ने
एक ऐसी भाषा-शैली तैयार की जिससे उनकी किताबों को पाठक दीवेने हो गए...... जासूसी
उपन्यास कहीं किनारे होने लगे ।
जो ख्याति एक समय में
सलीम-जावेद ने अपने पटकथा लेखन में अर्जित की थी उसके जैसा ही मायाजाल गुलशन नंदा
ने रचा था ...... लेखकों को मिलने वाली राशि भी बढ़ी थी .......उनका जादू चल निकला
अब मायानगरी इन सबसे कैसे अछूती रहती ......... उनका गुलशन भी आबाद हो गया
........ हिन्दी फिल्मों में उनका प्रवेश ‘काजल’ के ज़रिये हुआ था जो कि सन 1965 में रिलीज़ हुई थी और जो उनके पूर्व प्रकाशित उपन्यास
‘माधवी’ पर आधारित थी जो लोकप्रिय उपन्यासों में शुमार है। उसके बाद लगभग 20 सालों में उन की कोई 20-25 फ़िल्में आयीं जिनमें से अधिकतर
उनके पुराने उपन्यासों पर आधारित थीं । ‘काजल’ (1965), सावन की घटा’ (1966), ‘पत्थर के सनम’(1967), ‘नील कमल’ (1968), ‘खिलोना’ (1970), ‘कटी पतंग’ (1970), ‘शर्मीली’ (1970), ‘नया ज़माना’ (1971), ‘दाग़’ (1973), ‘झील के उस पार’ (1973), ‘जुगनू’ (1973), ‘जोशीला’ (1973), ‘अजनबी’ (1974), ‘भंवर’ (1976), ‘महबूबा’ (1976) जैसी सूची केवल गुलशन नंदा के प्रोफाइल में ही देखी जा सकती
है।
फिल्मी दुनिया के सारे
दिगज निर्माता-निदेशकों ने इनकी कहानियों और पटकथाओं पर सफल फिल्में
बनाईं.इनमें यश चौपड़ा,
शक्ति सामंत, प्रमोद चक्रवर्ती, एल.वी.प्रसाद, रामानन्द सागर शामिल हैं एक दौर ऐसा आया कि उनके प्रकाशक
उनको मुंहमांगे पैसे पेशगी देने लगे वे दिल्ली के मशहूर होटलों वे महंगे होटलो के
सुइट में बैठ कर उपन्यास लिखा करते थे. ‘गेलॉर्ड’ नामक उपन्यास उसने दिल्ली के
गेलॉर्ड रेस्तरां में बैठकर लिखा था वे दिन भर वहीँ बैठकर लिखते,
जब उपन्यास पूरा हुआ तो उसका नाम रखा ‘गेलॉर्ड’..... उनकी
शाहाना जिंदगी के उन दिनों किस्से छपा करते थे बाद के दौर में उन्होंने मुम्बई में
अपना एक बंगला बांद्रा के उस इलाके में बनवाया जिसमें बड़े-बड़े फ़िल्मी सितारे रहा
करते थे नाम रखा ‘शीशमहल’......
शीशमहल के इस सितारे
लेखक जैसा वैभव बहुत कम लेखकों को मिलता है कहते हैं वे पहले उपन्यासकार थे जिनके
एक उपन्यास ‘झील के उस पार’ की पांच लाख प्रतियाँ उस ज़माने में बिकी जब हिंदी में
इतनी किताबें बिकने का रिवाज़ नहीं था वे पहले लेखक थे जिन्होंने हिंदी के लेखकों
को ग्लैमर से परिचित करवाया .............
‘कटी पतंग’ के चीनी
भाषा के अनुवाद ने तो वहां बिक्री के रिकार्ड ही कायम कर दिए इस सबके बावजूद गुलशन
नंदा के मन में एक टीस थी वह थी हिन्दी साहित्य में अस्वीकृति की तमाम सामाजिक
स्वीकृति के बावजूद वहां उन्हें स्वीकार नहीं किया गया उन्होंने अपने जीवन में केवल 47 उपन्यास लिखे लेकिन वे पहले लेखक थे जिन्होंने अपने
उपन्यासों को अपनी कीमत पर बेचा अपनी शर्तों पर बेचा.....
आप पढ़ रहे थे प्रमोद
को

