पूरियाँ
रोटीअगर गरीबीं का प्रतीक है तो पूरी प्रतीक है अमीरी का ........ हो सकता है आप मुझसे असहमत हों मगर यह सहींहै ......... व्यंजनों का अपना वर्गीकरण है ....... गरीब कभी पूरी के लिए नहीं तरसता ....... वो रोटी ही मांगता है ......... फिर वैसे भी पूरियां अक्सर त्यौहारों पर बनाई जाती थी ........ खासकर हमारे छत्तीसगढ़ में तो पूरी को बड़ी थाली का अंग माना जाता है ......... अरे हां ... पूरी नहीं सोंहारी .............. कहावत भी है साग सोंहारी सत्तर पूड़ी ..... तउनो में बपुरी भूंज मसूरी ............पूरी और सोंहारी के बीच का अंतर मुझे शायद न पता हो मगर दोनों का साम्य समझ में आता है ....... भंडारे में तो पूरी और चने की साग ने इसे औऱ भी लोकप्रिय बना दिया है मगर उसका स्तर भी शायद नीचे आया है क्योंकि इसके चलते यह आम लोगों के बींच पहुंच गया ........ भंडारे की पूरियां घरों की पूरियों से थोड़ा अलहदा होती है ....... वे घर में बनाई जाने वाली पूड़ियों जैसी नहीं होती .........किंचित लम्बोतर, ललछौंही-भूरी, मुलायम, अधिक अन्नमय, और व्यापक जनसमूहों के भूख को शातं करने का प्रयोजन इसमे साफ झलकता है । मेरे मन में अक्सर इस शब्द की उत्पत्ति कहां से हुई होगी यह सवाल उठता है ........ कहते हैं पूड़ी शब्द की उत्पत्ति ही पुड़ से हुई है- जैसे सतपुड़ा यानी सात तहों वाला पर्वत ठीक उसी तरह ये पूरियों का नामकरण भी हुआ होगा ............. पूड़ियों को बेलते समय तो आटे की लोई एक ही पुड़ की, समतल ही रहती है मगर कड़ाही में तले जाने पर उसमें दो पुड़े फूल आते हैं......... पहला, बाहरी पुड़ा महीन और कोमल, जो सहज ही आपको आकर्षित करेगा और दूसरा, आंतरिक भाग जो अन्न के सत्त्व को खुद में सँजोए, जिससे आपकी भूख समाप्त हो जाएगी ।
मेरी समझ में पूरी एक प्रजाति है जिसमें अनेक नाम बाद में अपना स्वयं का अस्तित्व तलाशते अपने मूल वंश से इतर होकर नई पहचान बनाने में कामयाब हो गए हैं ...... पूड़ियों का एक रूप बेड़ई या कचौड़ी है ............. पूरी का पूरा डीएनए इसमें मिलता है ...............मैदा की भी पूड़ी बनती है जिसे कहीं कहीं लचुई या लूची कहते हैं । हमारी रिसर्च कहती है कि यह बंगाल के क्षेत्र में प्रचलित है। हम जिस पूडी की चर्ता कर रहे हैं उसे शुरुआत में सोंहारी कहा है ........ यह नाम अवध से निकला है ..... वहं पूड़ी को सोहारी कहा जाता है ...............वह उत्तर-मध्य भारत में बनने वाली मूँगदाल की कचौड़ी से अलग कुछ पूड़ियाँ तो पुरइन के पत्ते जैसी लम्बी-चौड़ी भी होती हैं .......... भोजपुर-अंचल में वह हाथीकान पूड़ी कहलाती है ............ यह बड़ी साफ्ट- मुलायम होती है और एक पखवाड़े तक ख़राब नहीं होती........ हमारे देश में उत्सव का व्यंजन है पूरी । रोटी के एक पायदान उपर........ पूड़ियाँ नहीं तो पर्व नहीं...............पूड़ियाँ तली जा रही हैं तो पर्व ही होगा ही या फिर किसी अमीर की रसोई ...... रोटीऔर पूरी में जिस दिन फर्क मिट जाएगा शायद उसी दिन गरीबी और अमीरी में भी .....
आप पढ़ रहे थे प्रमोद को ......
